Last modified on 6 अक्टूबर 2020, at 22:31

चौराहे पर लड़की / कुलदीप कुमार

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:31, 6 अक्टूबर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुलदीप कुमार |अनुवादक= |संग्रह=बि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रोज़ दिखती है उसी चौराहे पर
सर्दी, गरमी, बरसात, ओले, आँधी, लू
कुछ भी नहीं रोक पाता उसे

बंदरिया की तरह एक नन्हें से बच्चे को सीने से चिपकाए
वह हर कार के पास जाकर हाथ फैलाती है
पक्का रंग है उसका, साँवले से कुछ गहरा ही
चेहरा खुरदरा है पर एक अजीब से सौंदर्य से दीप्त
आँखें वैसी ही सूनी
जैसा उसका घर
स्थगित यौवन
सूखे झरने सा

मैं अक्सर दूर से ही उसे देख लेता हूँ और
कार ऐसी जगह रोकने की कोशिश करता हूँ
जहाँ वह हरी बत्ती होने तक पहुँच न पाए
दुविधा में रहता हूँ हरदम ऐसा करते हुए
क्या मैं पैसे बचाने के लिए ऐसा कर रहा हूँ
या ख़ुद को बचाने के लिए?

कभी-कभी दिए भी हैं मैंने उसे पैसे
जब वह आ ही गयी ठीक खिड़की के सामने
उसे तो क्या पता चला होगा
कि पैसे उसकी हथेलियों में गिरे
और आँसू मेरी जेब में

कभी-कभार उसका बच्चा कुनमुना कर
अपने जीवन का सबूत देता है
और मैं सोचता रह जाता हूँ
क्या इसका जीवन कभी शुरू भी होगा?

यह सब भी मैं लाल बत्ती पर रुके हुए ही सोचता हूँ
वरना हमें अब कुछ भी सोचने का
शऊर कहाँ रहा?