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चौराहे पर लड़की / कुलदीप कुमार

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रोज़ दिखती है उसी चौराहे पर
सर्दी, गरमी, बरसात, ओले, आँधी, लू
कुछ भी नहीं रोक पाता उसे

बंदरिया की तरह एक नन्हें से बच्चे को सीने से चिपकाए
वह हर कार के पास जाकर हाथ फैलाती है
पक्का रंग है उसका, साँवले से कुछ गहरा ही
चेहरा खुरदरा है पर एक अजीब से सौंदर्य से दीप्त
आँखें वैसी ही सूनी
जैसा उसका घर
स्थगित यौवन
सूखे झरने सा

मैं अक्सर दूर से ही उसे देख लेता हूँ और
कार ऐसी जगह रोकने की कोशिश करता हूँ
जहाँ वह हरी बत्ती होने तक पहुँच न पाए
दुविधा में रहता हूँ हरदम ऐसा करते हुए
क्या मैं पैसे बचाने के लिए ऐसा कर रहा हूँ
या ख़ुद को बचाने के लिए?

कभी-कभी दिए भी हैं मैंने उसे पैसे
जब वह आ ही गयी ठीक खिड़की के सामने
उसे तो क्या पता चला होगा
कि पैसे उसकी हथेलियों में गिरे
और आँसू मेरी जेब में

कभी-कभार उसका बच्चा कुनमुना कर
अपने जीवन का सबूत देता है
और मैं सोचता रह जाता हूँ
क्या इसका जीवन कभी शुरू भी होगा?

यह सब भी मैं लाल बत्ती पर रुके हुए ही सोचता हूँ
वरना हमें अब कुछ भी सोचने का
शऊर कहाँ रहा?