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एक फन्तासी / लुईज़ा ग्लुक / मंगलेश डबराल

मैं आपको कुछ बताती हूँ : हर दिन
लोग मर रहे हैं । और यह सिर्फ शुरुआत है ।
हर दिन अन्त्येष्टि-स्थलों में नई विधवाएँ जन्म लेती हैं,
नई-नई अनाथ । वे दोनों हाथ बाँध कर बैठती हैं,
नए जीवन के बारे में कुछ तय करने के सवाल पर सोचती हुईं ।

फिर वे क़ब्रिस्तान जाती हैं, कुछ तो
पहली बार । उन्हें रोने से डर लगता है,
कभी रुलाई न आने से । फिर कोई उनकी तरफ झुकता है
उन्हें बताता है कि आगे क्या करना है, जिसका मतलब हो सकता है
कुछ शब्द कहना, कभी
खुली हुई क़ब्र में मिट्टी डालना ।

और उसके बाद सभी घर लौटते हैं,
जो अचानक मातमपुर्सी करने वालों से भर गया है ।

विधवा सोफ़े पर बैठ जाती है, एकदम धीर-गम्भीर,
लोग एक-एक कर उससे मिलने के लिए आगे आते हैं,
कभी उसका हाथ थामते हैं, कभी गले लगाते हैं,
उसके पास कहने के लिए हमेशा कुछ न कुछ होता है,
वह उन्हें शुक्रिया कहती है, आने के लिए शुक्रिया ।

मन ही मन वह चाहती है कि वे चले जाएँ.
वह लौटना चाहती है क़ब्रिस्तान में,
बीमारी वाले कमरे में, अस्पताल में । वह जानती है
कि यह सम्भव नहीं है । लेकिन वही उसकी अकेली उम्मीद है,
पीछे लौटने की इच्छा । थोड़ा सा ही पीछे,
बहुत पीछे विवाह और पहले चुम्बन तक नहीं ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल