भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह / विनोद दास
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:54, 1 अक्टूबर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार =विनोद दास }} वह रोज़ एक पुराने संदूक से नए और तह ...)
वह रोज़
एक पुराने संदूक से
नए और तह किए कपड़े निकालती
और सोचती कि इसे उस दिन पहनेगी
थोड़ी देर बाद उसी संदूक में
फिर उन कपड़ों को तहा कर रख देती
जब होती कहीं पास-पड़ोस में शादी
उसे चढ़ आता बुख़ार
और दर्द से
उसकी देह ऎंठने लगती
वह सोने से पहले
हर रात देखती एक सजा घोड़ा
जो आकाश से उतरता था
और उसे दूर ले जाता था
उसने शीशे में देखे एक दिन
अपने सिर में कई पके बाल
उस रात घोड़ों की टापों ने
उसे रौंद डाला।