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शाल एक रेशमी / महमूद दरवेश / सुरेश सलिल

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दरख़्त<ref>पेड़</ref> की शाख़<ref>टहनी</ref> पर एक शॉल।
लड़की कोई गुज़री होगी इधर से,
या कि हवा,
और टाँग गई शॉल अपना, दरख़्त पर ।

ये कोई ख़बर नहीं,
आराम फ़रमाते एक शा’इर की नज़्म का मुखड़ा है ।
और वो अब इश्क़ में मुब्तला<ref>व्यस्त</ref> नहीं है,
लिहाज़ा शुरू किया उसने उसे निहारना,
थोड़े फ़ासले से, चरागाह के
किसी ख़ूबसूरत नज़्ज़ारे के मानिन्द ।

समो लिया ख़ुद को उस नज़्ज़ारे में :
क़द्दावर है भिंसा का दरख़्त,
और शॉल रेशमी !
साफ़़ ज़ाहिर है कि लड़की गर्मी के महीनों में
 लड़के से मिला करती होगी,
और वे यहाँ ख़ुश्क-ज़र्द घास पर
 बैठते होंगे।

इसके ये भी मा’नी निकलते हैं
कि वे ख़ुफ़िया शादी
के लिए परिन्दों को फुसलाया करते होंगे,
क्योंकि इस पहाड़ी पर सामने
तना खुला आसमान परिन्दों के लिए लुभावना है

 लड़के ने लड़की से कहा होगा,
‘‘तुम मेरे पहलू में हो, तब भी
 मैं तुम्हारी हसरत से लबरेज<ref>लबालब भरी</ref> हूँ,
गोया तुम बहुत दूर हो मुझसे ।’’

और लड़की ने लड़के से कहा होगा,
‘‘मैं तुम्हें अपने आगोश<ref>आलिंगन</ref>
 में भींचे हूँ, जैसे मेरे उरोज,
गो कि तुम बहुत दूर हो मुझसे ।’’
 
 जवाब में लड़के ने लड़की से कहा होगा,
‘‘तुम्हारी नज़रों में
 पिघलकर मैं सरगम हो जाता हूँ ।’’

और लड़की ने लड़के से :
 ‘‘मेरे घुटने पर तुम्हारा हाथ
वक़्त को पसीने में तब्दील कर देता है ।
लिहाज़ा मलो, इतना मलो कि मैं पिघल जाऊँ ।’’

शा’इर रेशमी शॉल का बयान करने में
इस कदर डूब जाता है कि उसे
इस हक़ीक़त का भी ख़याल नहीं आता,
कि ये दरहक़ीक़त<ref>वास्तव में</ref> बादल हैं —
सूरज डूबने के वक़्त
दरख़्त की शाख़ों के बीच से होकर गुज़रत।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल

शब्दार्थ
<references/>