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यादें / ममता किरण

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कभी-कभी
मन की पटरी पर
गुज़र जाती हैं यादें
इतनी तेज़ी से
कि जैसे
धड़धड़ाते हुए इक रेलगाड़ी
गुज़र जाती है
धरती के सीने पे

ये यादें हो जाती हैं
सर्द मौसम के गर्म कपड़ों की तरह
जिन्हें हम रख देते हैं सम्भाल कर
गोलियाँ कुनैन की डालकर
कि कहीं लग न जाए
उनमें कोई कीड़ा

ये यादें हो जाती हैं
उन पँछियों की तरह
जो मीलों दूर चलकर आते हैं
दिल के विशाल वृक्ष की टहनियों पर
जमा लेते हैं डेरा
और फिर लगाते फिरते हैं गुहार
उन्हें दाना चुगाने की

ये यादें हो जाती हैं
अपनी वो जमा पूँजी
जिन्हें हम रख देते हैं
तब के लिए सम्भालकर
कि जब कभी आएगा
कोई मुश्किल वक़्त

ये यादें हो जाती हैं
उस पतंग की तरह
कि जिसे कोई मासूम बच्चा
उड़ा रहा हो पूरे जोश से
सजाता ही हो, बस, सपना
कि पूरा आसमान उसका है
पर अचानक कट जाए उसकी पतँग
और अटक जाए किसी पेड़ पर

ये यादें हो जाती हैं
बेमौसम की उस बरसात की तरह
कि जैसे अचानक ही कोई बादल
बरस जाता है
तब
आँगन या छत की अलगनी पर
पसरे सारे कपड़े
भीग जाते हैं
कितनी साफ़ हो जाती हैं
सड़कें और मकान
धुल जाते हैं सारे पेड़-पौधे

धुल-धुल जाता है वैसे ही मन
बरसती हैं ये यादें जब आँखों से
सभी कुछ हो जाता है फिर पावन
इस तरह कि जैसे ग्रहण लगने पर
घर में खाने-पीने की चीज़ों में
रखती थी माँ तुलसी का पत्ता

विरासत में लिए हूँ
माँ से ये तुलसी का पत्ता
मेरी यादों के बीच
हरदम ही ये रहता है
सँजोए यादों को
बस, आगे बढ़ती जाती हूँ
और इनमें जुड़ता जाता है
इक काफ़िला
और और यादों का …
और और यादों का …।