भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँसुओं की ब्रेल लिपि / कमलेश कमल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:38, 21 अक्टूबर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कमलेश कमल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वक्त के रेल की मेरी हम-राह,
सुनो!
बेशक़ रहो मशगूल
अपनी मनमर्जियों के साथ!
बिछाती रहो जिम्मेदारियों का
ओढ़ना-बिछौना
और बजाती रहो समझदारी का
अपना बड़ा-सा झुनझुना!
पर, रखना ख़्याल
कि भहराकर न गिरें
ख़्वाबों के घरौंदे
न हो भीषण दरारें
भावों की भीत में!
शब्दों पर करना ग़ौर
ताकि न दबे
आतिशी शोर में
अर्थों की आत्मा!
और, रखना गुंज़ाइश
कि मन के रेशम में न पड़ें
संप्रेषण की सिलवटें!
छू सको तो छूना मेरा हाथ
ताकि दौड़ सके बिजलियाँ
हृदय के सुन्न तारों में!
सुन सको, तो सुनना मेरी सिसकियाँ
ताकि उतर सके मिन्नतें
कानों की सीढ़ियाँ!
जो सूँघ सको तो सूँघ लेना
आमों के बौर में
छिपी हुई उस गंध को!
साथ ही, रखना ऐसी दृष्टि
जो गुलमोहर में देख सके
वे सारे अरमान!
और, जो न कर सको कुछ भी
तो, कोशिश करना पढ़ने की
मेरे दुःख के किताब में टाँकी
आँसुओं की ब्रेल लिपि!