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बरस उठती हैं आँखें / अरविन्द यादव

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आज भी न जाने कितनी बस्तियाँ
बस जाती हैं हृदय में
जब भी सोचता हूँ तुम्हें
बैठकर एकान्त में

आज भी दिखाई देने लगता है
वह मुस्कराता हुआ चेहरा
यादों के उन झरोखों से
जो रहता था कभी आँखों के सामने

आज भी महसूस होती है
तुम्हारे आने की आहट
जब टकराती है पवन
धीरे से दरवाजे पर

आज भी स्मृतियों के सहारे आँखें
चली जाती हैं छत के उस छज्जे तक
जहाँ दिन में भी उतर आता था चाँद
शब्दातीत है जिसके दीदार की अनुभूति

आज भी हृदयाकाश में जब
उमड़-घुमड़ कर उठते हैं स्मृतियों के मेघ
जिनमें ओझल होता दिखाई देता है वह चाँद
तो अनायास ही बरस उठती हैं आँखें।