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कविता - 2 / अरविन्द यादव
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कविता नहीं है सिर्फ
साधन मनरंजन का
साधना
एक सृष्टा की
कविता नहीं है
गठजोड़ सिर्फ़ शब्दों का
तमीज
भाषा और अभिव्यक्ति की
कविता आइना है
अखिल समाज का
पहचान
सभ्यता, संस्कार की
कविता करती है विरेचित
मलिन भाव मन के
शुद्धता
कलुषित अन्त: करण की
कविता प्रस्फुटित करती है
पत्थरों से भी
उत्स
संवेदनाओं के
कविता सेतु है उस
स्रोतस्विनी का
पुलिन
यथार्थ और आदर्श जिसके
कविता बनाती है
हिंसक वृत्तियों को
इंसान
जगाकर उनमें मानवता
कविता नहीं करती भेद
ऊँच-नीच, अकिंचन-राजा
समदृष्टि
पहचान कविता की
कविता जब हुंकारती
आवाज बन निर्बल की
डगमगाते
मठ, महल और सिंहासन
कविता उखाड़ फेंकती
उन दिग्गज दरख्तों को
छाया तले
जिनके, नहीं पनपते छोटे से छोटे वृक्ष।