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कंगूरे / अरविन्द यादव

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अरे! कंगूरे सुन
इतना मत अकड़
यह चमक, यह ऊँचाई
जिस पर इठला रहा है
और उठती हर आँख को
अपना बैभव बता रहा है

यह सब तेरे गुण नहीं
उसका प्रभाव है
जिसने कर लिया है कैद,
खुद को अँधेरे में

जिसके लिए अजनवी है,
चाँद, सूर्य, तारे, हवा

मगर तू भूल गया उसको,
उसके उपकार को

जिस दिन तेरी तरह इठलाकर
निकल भागी वह आख़िरी ईंट
उसी दिन भरभरा कर हो जायेगा जमींदोज
और वही, कल तक जो देखते थे
अपलक तेरा सौंदर्य
हसेंगे तेरी भग्नावस्था पर

उस दिन ही समझ पायेगा
जो देखते थे नेत्र फाड़-फाड़ तेरा सौंदर्य
वह तेरा नहीं
वह आँखें जो उठती थी तेरी ओर
वह तुझे नहीं

देखती थी उस आखिरी ईंट के
त्याग और बलिदान को
जिसने बख्शी थी तुझे
इतनी शौहरत
इतना सम्मान...