भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आह वो मंजिले-मुराद / फ़िराक़ गोरखपुरी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:48, 25 अक्टूबर 2020 का अवतरण
आह वो मंज़िले-मुराद,दूर भी है क़रीब भी.
देर हुई कि क़ाफ़िले उसकी तरफ़ रवाँ नहीं.
दैरो-हरम है गर्दे-राह,नक्शे-क़दम हैं मेहरो-माह.
इनमें कोई भी इश्क़ की मंज़िले-कारवाँ नहीं.
किसने सदा-ए-दर्द दी,किसकी निगाह उठ गई.
अब वो अदम अदम नहीं,अब ये जहाँ जहाँ नहीं.
आज कुछ इस तरह खुला,राज़े-सुकूने-दाइमी.
इश्क़ को भी खुशी नहीं,हुस्न भी शादमाँ नहीं.