नयनों का सावन / रामगोपाल 'रुद्र'
मेरी पलकें क्या देख रहे? देखो मत नयनों का सावन।
जो देख सको तो देखो मेरे भाव, हृदय मेरा पावन।
आँखें तो हैं बरसाती नद,
जो आयी बाढ़, बहीं उन्मद,
भर आता बरसाती पानी,
तो धीरज की खो जाती हद;
क्या देख रहे छिछले लोचन,
मिटते जिनके मोती बन-बन?
दिल की मेरी दुनिया देखो, देखो मेरे मन की चितवन।
बादल बनकर जो आते हैं,
मोरों को नाच नचाते हैं,
बिजली के सैन चला दिल पर
कितनों के वज्र गिराते हैं,
कैसे हैं ये घनघोर नयन,
काले ये दिल के चोर नयन!
आँखों में किन्तु पपीहे की, बस एक रूप–स्वाती-जीवन।
आँखों से धोखा होता है,
जीवन अपना घर खोता है,
कैसे कोई विश्वास करे?
आँखें हँसतीं, मन रोता है;
बदला करती हैं ये क्षण-क्षण,
क्षण में करतीं सर्वस्व-हरण,
आँखों में प्रिय! क्या घूम रहे? आओ, देखो मन का उपवन।
तोता ज्यों आँख बदलता है,
आँखों का कौतुक चलता है,
थिरता इनमें कब आ पायी?
जो कुछ है, भृंग-चपलता है;
निरखो मत हे मोहक नर्तन,
देखो इनका बर परिवर्तन,
काले इन पर्दों के भीतर देखो अपना ही रूप-सुमन।