हार-जीत / रामगोपाल 'रुद्र'
धार में छोड़ी मैंने नाव, तीर पर दुनिया रोती रही।
एक दिन इसी तीर पर कहीं,
कहीं से, अपने से अनजान,
किसी का लेकर व्याकुल प्यार
और बस भोलेपन का ज्ञान,
हवा के दामन में बेहोश,
चूमती लहरों की मुस्कान,
लगी आकर थी मेरी नाव
लिये कुछ गूँज, लिये कुछ गान;
नाव में क्या-क्या था सामानतीर पर चर्चा होती रही।
और तब मैं सहसा रो पड़ा
कि मैंने देखी दुनिया नयी,
लगीं लगती-सी, पहली बार,
जमातें नयी, बिसातें नयी;
रूप की लगी हुई थी हाट
प्रेम बेहया, दया छलमयी
यहाँ आकर तो, हे भगवान!
देखता हूँ, पूँजी भी गयी;
तीर पर दुनिया भर की आँख-आँख में तीर चुभोती रही।
मगर जाना ही हो जिस ठौर,
वहाँ मर्जी की कैसी बात?
किसी ने चला दिया, चल पड़ा
चक्र-सा चलता मैं दिन-रात;
नाव लग गयी किनारे-घाट,
उतरकर, जहाँ मिल गया दौर,
लगा दी मैंने वहीं बिसात;
प्रीति मेरी, दुनिया के लिए रुपहले हार पिरोती रही।
मोल करने आये, मनचले,
न जाने कैसे-कैसे लोग,
किसी की आँखों में था लोभ,
किसी की बात—नीतिमय रोग;
मिले मुझको ऐसे उपदेश,
भरा जिनमें था केवल ढोंग;
जानकर मुझे महज़ अनजान
किया सबने ठगने का योग;
मुझे छलकर दुनिया कि चाल आबरू अपनी खोती रही।
और अब आज विदा कि घड़ी,
विदा उनसे, जो अच्छे लगे;
विदा उनसे, जिनके अरमान
दु: ख में रात-रात भर जगे:
विदा उनसे भी, बनकर मीत
जिन्होंने मेरे मोती ठगे;
विदा उन सपनों को भी आज,
आज तक जो पलकों से टँगे;
तीर-सा चल तीर से तेज, तीर पर छाया सोती रही।
फलेंगे, निश्चय, बनकर पेड़,
कि बोये हैं मैंने जो बीज;
छोड़ आया हूँ मैं जो राख,
बनेगी दुनिया का तावीज;
प्रेम की आवेगी वह बाढ़
कि धो देगी जो गली-गलीज़;
रंग लावेगी मेरी हार
एक दिन बनकर जन की चीज़;
हारकर भी मैं हँसता चला, जीतकर दुनिया रोती रही।