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कवि से / रामगोपाल 'रुद्र'

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यह कैसा सामान तुम्हारा?
लक्ष्य लुट रहा आज भक्ष्य पर, मान है कि अपमान तुम्हारा?

तुमने जड़ता में जीवन भर
कभी मर्त्य को किया स्वर-अमर,
बने क्रांति-पथ के तीर्थंकर;
और आज, बन सौख्य-भिखारी, भटक रहा अरमान तुम्हारा।

तन का हर अभिशाप ठेलकर,
मन का भीषण ताप झेलकर,
तूफानों में बढ़े, खेलकर,
मगर आज यह मकड़जाल क्यों जकड़ रहा अभियान तुम्हारा?

अपने प्रण पर अड़े रहे तुम,
हर आफत से भिड़े, लड़े तुम
ऐसा, लेकिन, आज सड़े तुम,
मिट्टी को भी घिना रहा है, मिट्टी बन अभिमान तुम्हारा।

तुमने अपनी टेक तोड़ दी,
कठिन कर्म की राह छोड़ दी,
किधर प्रगति की धार मोड़ दी!
हस्ती को बरबाद कर रहा, बदमस्ती का गान तुम्हारा।

तुम पर लगे हुए थे लोचन,
जन-जन के तुम ही थे जीवन,
तुम ही थे भव के भ्रम-मोचन,
और आज तुम स्वयं भ्रान्‍त हो, भ्रान्‍ति बन रही ध्यान तुम्हारा।

जागो, अहो क्रान्‍त के द्रष्टा!
जागो, अहो क्रान्‍ति के स्रष्‍टा!
जागो, ओ युग-युग के त्वष्‍टा!
कब से जगा रहा है जग को नवयुग का दिनमान तुम्हारा।