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नाहीं त / कुमार वीरेन्द्र

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जब भी
कोई साँप घर, खेत, बोरिंग में
दिखाई देता, चिल्ला पड़ता, ‘बाबा, देखो साँप…’; वे ताकते और मारना हो, लाठी से लठिया डालते
नहीं तो, मुँह फेर काम में लगे रहते; जब मार देते, मैं थपड़ी बजाने लगता, नहीं मारते, सवाल करता
वे मेरे हर सवाल का समझाते हुए जवाब देते कि ई भी बिखबिहीन, काट दे कुछु
नाहीं होता; मुझे का मालूम कवन बिखबिहीन कवन नाहीं; वे कई
साँपों के बारे में बताते, चिन्हवाते, पर इतने साँप, मैं
बिसर ही जाता, रोज़ दिखते नहीं जो
याद रहते, इसलिए बार
बार पूछता

वे बार-बार
बताते; कभी बगीचे में बैठे साँपों के कुछ
क़िस्से भी सुनाते, दूर तक मन भटकता चला जाता; एक बेर खेत पटा रहे थे, साँप बिल से निकल डरार
लाँघने लगा, चिल्लाया, कुदारी चलाते ही रहे, पूछा, खिझियाते कहने लगे, ‘जब चिन्हवा दिया काहे नाहीं
धेयान रखता, सब बिखवाला नाहीं, कब तक बताता रहूँगा, कल नाहीं रहा तो…’; मैं ठक्
लोर चुआने लगा, पोंछते कहने लगे, ‘हर साँपवा मुद्दई नाहीं, सबको एके
जइसा नाहीं मानते; बेटा, ई भी धरती के बंसज, इन्हें भी
हक़ जीने का, चीन्हना सीखो; पहिले से ही
मन में बैर नाहीं रखना चाहिए
नाहीं त अदिमी

साँप से भी जादा बिखधर

हो जाता है !’