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गुसाईं, आज तुम होते / रामगोपाल 'रुद्र'

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गुसाईं, आज तुम होते!
कला की देखकर यह दुर्दशा, तुलसी, बहुत रोते!

मनोरंजन अरसिकों का, कुपात्रों के विरद गाना,
पदों के तोड़ पद, यतिहीन कुछ तुक तोड़ ले आना,
यही है काम कवियों का, इसी में हैं समय खोते!

छिड़ा है प्रश्न रोटी का, पड़े हैं जान के लाले,
घरों में दण्ड चूहे पेलते हैं शत्रु रखवाले,
अभी तक पर हमारे कवि अलक में खा रहे गोते!

प्रवर्तक जो कहे जाते युगों के, बेख़बर-से हैं,
शृंगालों-से छिपे हैं वीर जो शेरे-बबर-से हैं,
जगाएँगे हमें क्या ख़ाक! युग से जो रहे सोते?

करेंगे क्या भला लेकर विरह के गीत, कव्वाली?
हमारा सर न ऊँचा कर सकेगी रीति वज्रवाली;
हमें तो चाहिए वे गान, जो हों शक्ति के सोते।

ज़माना बढ़ गया आगे, न क्यों फिर आज हम जागें?
डटें कवि-कर्म पर अपने, ज़माने की धरें बागें?
हमारे कवि जलन के दाग़ नव-निर्माण से धोते!
गुसाईं, आज तुम होते!