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ओ सैनिक / रामगोपाल 'रुद्र'
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जलना ही है, तो जलता चल।
पर आह कभी न कढ़े मुख से,
हिल जाय हृदय न कभी दुख से;
यह जान रहे, न रहे, लेकिन
ईमान रहे, अविचल सुख से;
जग-जाल घिरें, घिरें, घेरेंगे ही, लेकिन तू चलता चल।
तूफानों से खेलना पड़ा,
चट्टानों को ठेलना पड़ा;
छूटा वह सपनों का नंदन,
क्या-क्या न तुझे झेलना पड़ा?
आब आज, पार करके पहाड़, इन काँटों को भी दलता चल।
कुछ देर और कुछ दूर और,
चल, होने दे तन चूर और;
हिम्मत न हार; मन को सँवार;
वह देखसामनेसिंहपौर
ललकार रहा है बार-बार: जीतों में हार बदलता चल।