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फ़िलहाल -2/ प्रफुल्ल कुमार परवेज़
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जिनके जीने या मरने से
कहीं फ़र्क़ नहीं पड़ता
वे इलाज के लिए
सिविल अस्पताल में
क़तारबद्ध हैं
जिनका कहीं पहुँचना
ज़रूरी नहीं है
वे रेलों में सवार हैं
जिनको होना है
न घर का न घाट का
वे विद्यालयों में दाख़िल हैं
दोपहर जेठ की है
पेड़ बबूल के
छाँव सारी सेठ की है
यह क़रीब-क़रीब
अपने मातम में शरीक लोगों का
फुसफुसाता वार्तालाप है
बेआवाज़ लोगों का
ख़ामोश विलाप है
सड़क सुनसान है
लोकतांत्रिक छूट के तहत
लोग पगडंडियों पर
भटके हुए हैं
आसमान से गिरे थे
फ़िलहाल
खजूर में
अटके हुए हैं