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आह्वान / रामगोपाल 'रुद्र'

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कोड़ते चलो ज़मीन कोड़ते चलो!
कोड़ते चलो!

इस ज़मीन में हजारों धन-भरे घड़े
व्यर्थ हैं पड़े, समाज-पाप से गड़े;
बन्‍द है विकास, कोष-कैद में पड़े;
लाखों-लाख गुल शराब के लिए सड़े;
ये गड़े लहू के घड़े फोड़ते चलो!
कोड़ते चलो!

सूख गई धार यहाँ धूर हुई रेत;
एक बियाबान, जहाँ जिन्‍दगी अचेत,
आते नहीं मेह, मधुर भूल गए हेत;
टाँड़-टाँड़ कास हँसे; बाग-बाग बेंत!
मेह बनो, धार नई छोड़ते चलो!
कोड़ते चलो!

सैकड़ों पसार शाख़, फैल सभी ओर,
भूमि में हजारों गोड़-गोड़ सूँड़-सोर,
लाखों-लाख पौधों के आधार हीन-छोर
फैले सात-पाँच बड़े रूख भूमि-चोर;
भूमि के लिए इन्हें मरोड़ते चलो!
कोड़ते चलो!

राह बँधी, चाह बँधी, आह भी बँधी;
कोटि-कोटि बेपनाह जिन्‍दगी बँधी;
कोठियाँ खुलीं कि मुक्‍ति की मही बँधी;
सड़ गई यहाँ बयार तक बँधी-बँधी;
ये सड़ाँध के तिलिस्म तोड़ते चलो!
कोड़ते चलो!