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दिवकुसुम / रामगोपाल 'रुद्र'

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अभ्यर्थना का भी नहीं साहस रहा।

अब क्या कहूँ, कैसे कहूँ?
चुप भी मगर कैसे रहूँ?
किस भाँति मेरा भाव ही मेरे हृदय को कस रहा!

धारा बनी हो बाढ़ जब,
बह जाय तट तो क्या जब!
अपनी अबलता की सबलता पर न मेरा बस रहा!

तुम तो, परन्‍तु, सहज सदय,
पद में तुम्हारे कौन भय?
कर दो उसे भी चन्‍द्रमणि, जो नाग मन को डँस रहा!

मेरी भ्रमरता क्षुब्ध है,
चक्षु: श्रवा मन लुब्ध है,
दृग में चकोरी-चाह के, लांछन तुम्हारा बस रहा!

अपने सजल निर्मल नयन
भर दो कि धुल खिल जाय मन;
छवि-भाव कवि का आप अपनी भावना पर हँस रहा!

अब तुम न 'तुम' मेरे लिए,
हो दिवकुसुम मेरे लिए;
आराध्य हो वह फूल जो भर घूल में भी रस रहा!