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मैं तो रस के बस था / रामगोपाल 'रुद्र'

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मैं तो रस के बस था!
तुम कहते हो, भावुकतावश, मैं बुद्धिहीन हो गया, मीत!

सच है, मैं तो रस के बस था!
मैं छला गया, पर छल न सका,
जलकर भी लौ से टल न सका;
जलना मेरी लाचारी थी,
ज्वाला ही मुझको प्यारी थी!
क्या कहूँ कि उसमें क्या रस था!
जय तो मैं भी पा सकता था, पर मुझे मुझी ने लिया जीत!

प्रिय कहीं अंग, प्रिय कहीं आग!
पाकर सनेह मन जलता है,
दीपक नेही को छलता है;
कोई बरबस बस लुट जाता,
परवाना लौ से जुट जाता!
प्रिय कहीं रूप, प्रिय कहीं राग!
मेरी यह लय तो रक्षित है, सुर भले नहीं बन सके गीत!