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मन कितना आतुर है / रामगोपाल 'रुद्र'
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मन कितना आतुर है कुछ गाने को!
लगता है, मेरा प्रिय है आने को!
हो रहा गला गीला, आँखें छलछल;
पदचाप किसी की सुन पड़ती पल-पल;
बेसुध प्राणों के तार तड़प उठते;
सुध मचली है कजली बन जान को!
अभिषेक-सलिल-पूरित कलसोंवाले,
छिवछत्र-चँवरधारी, जलधर काले
आ रहे पवन के संग, सने श्रम से,
बारात उसी की द्वार लगाने को!