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एक उम्र के बाद माँएँ / गगन गिल

Kavita Kosh से
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एक उम्र के बाद माँएँ

खुला छोड़ देती हैं लड़कियों को

उदास होने के लिए!


माँएँ सोचती हैं

इस तरह करने से

लड़कियाँ उदास नहीं रहेंगी,

कम-अज-कम उन बातो के लिए तो नहीं

जिनके लिए रही थीं वे

या उनकी माँ

या उनकी माँ की माँ


मसलन माँएँ ले जाती हैं उन्हें

अपनी छाया में छुपाकर

उनके मनचाहे आदमी के पास,

मसलन माँएँ पूछ लेती हैं कभी-कभार

उन स्याह कोनों की बाबत

जिनसे डर लगता है

हर उम्र की लड़कियों को,

लेकिन अंदेशा हो अगर

कि कुरेदने-भर से बढ़ जाएगा बेटियों का वहम

छोड़ भी देती हैं वे उन्हें अकेला

अपने हाल पर!


अक्सर उन्हें हिम्म्त देतीं

कहती हैं माँएँ

बीत जाएंगे, जैसे भी होंगे

स्याह काले दिन

हम हैं न तुम्हारे साथ!

और बुदबुदाती हैं ख़ुद से

कैसे बीतेंगे ये दिन, हे ईश्वर!


बुदबुदाती हैं माँएँ

और डरती हैं

सुन न लें कहीं लड़कियाँ

उदास न हो जाएँ कहीं लड़कियाँ

माँएँ खुला छोड़ देती हैं उन्हें

एक उम्र के बाद


और लड़कियाँ

डरते-झिझकते आ खड़ी होती हैं

अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू


अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू लड़कियाँ

भरती हैं संशय से

डरती हैं सुख से

पूछती हैं अपने फ़ैसलों से,

तुम्हीं सुख हो?

और घबराकर उतर आती हैं

सुख की सीढियाँ


बदहवास भागती हैं लड़कियाँ

बदहवास ढूंढ़ती हैं माँ को

ख़ुशी के अंधेरे में

माँ कहीं नहीं है

बदहवास पकड़ना चाहती हैं वे माँ को

जो नहीं रहेगी उनके साथ

सुख के किसी भी क्षण में!


माँएँ क्या जानती थीं

जहाँ छोड़ा था उन्होंने

उदासी से बचाने को,

वहीं हो जाएंगी उदास लड़कियाँ

एकाएक

अचानक

बिल्कुल नए सिरे से!


उदास होकर लड़कियाँ

लांघ जाती हैं वह उम्र

जहाँ खुला छोड़ देती थीं माँएँ!