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सपनों के दृग! मत नाच / रामगोपाल 'रुद्र'
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सपनों के दृग! मत नाच, शिशिर-बन में,
पावस के घन बरबस घिर आएँगे!
मैं तो तुझमें ही था, पर तूने ही
मुझको छलकाकर सागर कर डाला!
सीपी तक से थी भेंट नहीं जिसकी,
उसको तूने रत्नाकर कर डाला!
तू डूबेगा मेरे नीलेपन में
तो लहरों पर मोती तिर आएँगे!
एक ही राग तूने मुझ पर साधा,
जो आग लगा देता है पानी में!
पर यह सुर भी मुझमें ही डूबा था,
जो आज विकल है मेरी वाणी में!
मत छेड़ मुझे, वरना जो सावन में
घर लौट गए थे, फिर-फिर आएँगे!
कूलों से बहते आए जीवन को
तूने अकूलता देकर बाँध लिया!
चुप रहूँ आज भी क्या? जैसे उस दिन
बेदम होकर मैं दम साध लिया!
उमड़ेगा तू कूलों के निर्जन में,
अपजस नाहक मेरे सिर आएँगे!