भूमिका / लेकिन सवाल टेढ़ा है
यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि डी एम मिश्र , दुष्यंत कुमार से भी ज्यादा अदम गोंडवी की परम्परा के गज़लकार हैं । पिछली सदी के आठवें दशक में दुष्यंत कुमार ने जहां ग़ज़ल के द्वार मध्य और निम्न-मध्य वर्ग के लिए खोले थे वहीं अदम ने उनके बाद उनसे एक कदम आगे बढ़कर ग़ज़ल को शायरी की दुनिया से उपेक्षा की सीमा तक दूर ठेठ ग्रामीण लोक के निम्न मेहनतकश वर्ग के जीवन की दुश्वारियों और उसकी जन-संस्कृति से जोड़ दिया था । किसी रचना-रूप को यहाँ तक ले आना आज की विषम दुनिया में बहुत आसान काम नहीं है । इसकी एक मुख्य वजह यह भी है कि आज के मध्यवर्गीय रचनाकार के पास जीवन के वे मुश्किल अनुभव ही नहीं बचे हैं । वह स्वयम अपने मध्यवर्गीय जीवन से बाहर नहीं निकल पात़ा । इसलिए जब कोई शायर थोड़ा सा भी निम्न मेहनतकश की ज़िंदगी की तरफ झांकता है तो जैसे घनी तपन में शीतल बयार का एक झोंका-सा आ गया है , ऐसा लगता है । दरअसल आज कविता को सच्चे अर्थों में जनपक्षीय बना देना हर ऐरे गैरे रचनाकार का काम भी नहीं रह गया है । जिस तरह से अदम ने ग़ज़ल की भाषा और मुहावरे को आज की मध्यवर्गीय हिंदी से ज्यादा हिन्दुस्तानी के नज़दीक रखा था , उसी तरह से डी एम मिश्र भी रखते हैं । जिस तरह से अदम, ग़ज़ल को सामाजिक-राजनीतिक -आर्थिक यथार्थ-चेतना को व्यक्त करने का एक सशक्त एवं क्षुब्ध माध्यम बनाकर प्रस्तुत करते हैं उसी परम्परा में डी एम मिश्र अपनी ग़ज़ल को विस्तृत करने का काम अपना मुहावरा विकसित करते हुए करते हैं । निस्संदेह वे अदम से बहुत सीखकर आगे बढ़े हैं।वह सीख उनकी ग़ज़लों में बाहर से खूब नज़र आती है लेकिन वे वहीं तक ठहरते और ठिठकते नहीं है। वे ज़िंदगी के सरोकारों का विस्तार करते हैं और ईमानदारी भी बरतते हैं।एक मूल्यधर्मी जीवन जीने का संकल्प भी उनमें है।आम आदमी की आम संस्कृति ही उनकी ग़ज़ल को आज की उस मध्यमवर्गीय मिथ्या आक्रोश दिखाने वाली ग़ज़ल से अलग करती है।और उसे जनग़ज़ल के विभिन्न क्षेत्रों में फैलाती जाती है। श्री मिश्र किसी परदे की ओट बनाकर अपना बनावटी चेहरा नहीं दिखलाते। जो है उनका ग़ज़ल के रूप में सामने है।वे मज़रूह सुल्तानपुरी ,अजमल सुल्तानपुरी,तेवर सुल्तानपुरी, त्रिलोचन,मानबहादुरसिंह सभी को अपने भीतर रखते हैं।वे ग़ज़ल की तरह हिंदुस्तानी तहजीब को अपने हृदय का हार बनाये हुए हैं जो ग़ज़ल रचना की बुनियादी शर्त है।
“लेकिन सवाल टेढ़ा है “ शीर्षक से प्रकाशित होने वाला यह उनका पांचवां ग़ज़ल संग्रह है । एक तरफ इसमें जहां उनकी पहले से चली आती हुई अनुभूतियों का विस्तार है वहीं दूसरी ओर यहाँ आकर उनके अशआर नए नए जीवन- क्षेत्रों का अन्वेषण भी करते हैं । इस अन्वेषण की गवाही खासतौर से उनके वे रदीफ़ देते हैं जो इस समय के अलावा पहले नहीं आ सकते थे । जब सत्ता ने गरीबों के घरों को तोड़ने के लिए अपना बुलडोज़र चलाया था तो उसी जीवनानुभव से मिश्र जी ने एक नयी रदीफ़ निकाल ली थी ---बुलडोज़र चला देगा । इसी तरह से जब कोरानावायरस जैसी वैश्विक महामारी के संकट से विश्व के साथ हमारा देश भी गुज़रा तो उनकी ग़ज़ल के लिए एक नया रदीफ़ मिल गया ---लाकडाउन हो गया । यह इस बात का सबूत है कि मिश्र जी अपने समय से कितने बाखबर और नवोन्मेषी भी हैं । उनकी यह बाखबरी उनकी ग़ज़ल को विशिष्ट ही नहीं बनाती , उनकी सज़ग संवेदना का भी एक प्रमाण पेश करती है।
बहरहाल यह कहना मुनासिब होगा कि डी एम मिश्र के यहाँ कोशिश रहती है कि व्यक्ति-सोच में द्वंद्वात्मकता रहे । वैसे ग़ज़ल अपने आप में विरोधाभास की कला है । सबसे पहले वह अपने समय की ज़िन्दगी और उसके रिश्तों के विरोधाभासों पर उंगली रखती है जिससे एक तरह का चमत्कार- सा पैदा हो जाता है । लेकिन यह चमत्कार तब तक बड़ा अर्थ पैदा नहीं कर पात़ा जब तक यह उन अंतर्विरोधों को ज़ाहिर न करे जो सामाजिक स्तर पर अभिशाप बने रहते हैं । सुख-दुःख, हर्ष-विषाद- गर्म-ठंडा , अन्धेरा-उजाला आदि प्रकृति व जीवन के सहज और जरूरी विरोधाभास हैं लेकिन ये हमारी ज़िंदगी में आकर गंभीर अंतर्विरोध भी पैदा करते हैं यह उसी रचनाकार को मालूम हो पात़ा है जिसके पास जीवन की जटिलताओं , कुटिलताओं और सौन्दर्यानुभूतियों को समझने की गहरी और वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि हो । यह खुशी की बात है कि मिश्र जी इन ग़ज़लों में इस ओर भी अग्रसर हो रहे हैं । यही बात है जो उनसे इस तरह के नए सौन्दर्यबोध वाले अशआर निकलवा लेती है ---- “ किसी अप्सरा इन्द्रपरी में बात कहाँ /यहाँ बात जो अपनी रामदुलारी में “। इस शे’र का रिश्ता इस ग़ज़ल के उस मतले वाले शे’र से सीधा-सीधा बनता है जहां वह यह स्थापना करता है कि इस समय के अनेक गज़लकार अपनी फनकारी दिखाने में लगे हुए हैं जबकि फनकारी के साथ जरूरत उस श्रम-संस्कृति से उत्पन्न सौन्दर्यबोध की है और उससे एकाकार होने की है जिसकी तरफ महान कथाकार प्रेमचन्द बहुत पहले इशारा कर चुके हैं । यहाँ भी गज़लकार अपने समय के पाठक और रचनाकार दोनों का ध्यान इसी तरफ आकर्षित कर क्यारी और खुरपे के बिम्ब से इस अछूते जीवन क्षेत्र की सौन्दर्य-संभावनाओं को दिखलाने का साहस करता है । इस तरह के मतले कुछ अलग तरह के होते हैं और रवायत के अभ्यस्त लोगों को ये झटका भी दे सकते हैं।वे लिखते हैं ---- “गज़लकार सब लगे हुए फनकारी में / मगर हम लिये खुरपी बैठे क्यारी में । “
मिश्र जी का शाइर इस समय के निजाम से , लोकतंत्र होने के बावजूद संतुष्ट नहीं है । उनके यहाँ इस बात की झलक एक बार नहीं , बार बार मिलेगी । वे मानते हैं कि इस राज में ईमानदारी नहीं है , न्याय भी नहीं है। इसलिए वे साफ़ साफ़ शब्दों में “ बदलेंगी “ जैसा रदीफ़ लाकर कहते हैं ---- “ अब ये गज़लें मिजाज़ बदलेंगी / बेईमानों का राज़ बदलेंगी “। बदलाव किस दिशा में होना चाहिए , यह इशारा भी इन ग़ज़लों में साफ़ साफ़ है मसलन ---दीन-दुखियों का वक़्त आयेगा / गज़लें बन्दानवाज़ बदलेंगी । ” इसलिए इनके यहाँ कोई काल्पनिक प्रतिरोध चेतना न होकर वह वास्तविकता के धरातल पर जाकर की गयी प्रतिरोध चेतना है । वह अमूर्त और निष्प्रयोजन वाली शिल्पवादी कला नहीं है । वह अर्थवान और ठोस एवं पुख्ता जमीन पर स्थित है । रचनाकार की खुद्दारी को व्यक्त करने की एक परम्परा ग़ज़ल की दुनिया में खासतौर से रही है । वह भी यहाँ है और वह प्यार-मुहब्बत तथा इश्क ---आशिकी की व्यंजनाएं भी , जिनके बिना शायद ही कोई गज़लकार रह पाता हो।
बांकपन और वक्र -भंगिमाओं की कला से ज्यादा मिश्र जी का आग्रह सरलता और सादगी के साथ सीधे सीधे कहने की कला पर रहा है । कहना न होगा कि हमारी कविता ने और उसमें भी खासतौर से ग़ज़ल ने जिस सामासिक संस्कृति को समकालीन सवालों के साथ उसे देशज स्तर तक लाकर जिस त्रिवेणी का प्रवाह किया है, वह पाठक के मनोमालिन्य का प्रक्षालन करता रहेगा , ऐसी आशा और कामना की जा सकती है।
डॉ जीवन सिंह, अलवर (राजस्थान )