भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम बिन कौन गुने / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:42, 16 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम बिन कौन गुने यह पीर!

चहुँ दिसि घोर चकोर-अमावस,
झंझावत, शिशिर में पावस;
अंजन-अन्‍ध नयन-मन कातर,
अनवधि आस अधीर!

तट की टेर दशन-विष-लहरी,
तर्जनियाँ, दुनिया की, प्रहरी,
समय-सँकेत; कदम्ब-तले मन,
तन छदहीन करीर!

मन के चोर! तुम्हीं चोरी से,
या, चाहे तो, बरजोरी से,
मेरे इस घेरे में आओ,
मुक्‍ति बने जंजीर!