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बुख़्ल की बुराइयाँ / नज़ीर अकबराबादी

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ज़र की जो मुहब्बत तुझे पड़ जावेगी बाबा!
दुख उसमें तेरी रुह बहुत पावेगी बाबा!
हर खाने को, हर पीने को तरसावेगी बाबा!
दौलत तो तेरे याँ ही न काम आवेगी बाबा!

फिर क्या तुझे अल्लाह से मिलवावेगी बाबा!

दाता की तॊ मुश्किल कोई अटकी नहीं रहती
चढ़ती है पहाड़ों के ऊपर नाव सखी की
और तूने बख़ीली से अगर जमा उसे की
तो याद यह रख बात की जब आवेगी सख़्ती

ख़ुश्की में तेरी नाव यह डुबवावेगी बाबा!

यह तो न किसी पास रही है न रहेगी
जो और से करती रही वह तुझ्से करेगी
कुछ शक नहीं इसमें जो बढ़ी है, सो घटेगी
जब तक तू जीएगा, यह तुझे चैन न देगी

और मरते हुए फिर यह ग़ज़ब लावेगी बाबा!

जब मौत का होवेगा तुझे आन के धड़का
और नज़आ तेरी आन के देवेगी भड़का
जब उसमें तू अटकेगा, न दम निकलेगा फड़का
कुप्पों में रूपै डाल के जब देवेंगे भड़का

तब तन से तेरी जान निकल जावेगी बाबा!

तू लाख अगर माल के सन्दूक भरेगा
है ये तो यक़ीन, एक दिन आख़िर को मरेगा
फिर बाद तेरे उस पे जो कोई हाथ धरेगा
वह नाच मज़ा देखेगा और ऎश करेगा

और रुह तेरी क़ब्र में घबरावेगी बाबा!

उसके तो वहाँ ढोलक व मृदंग बजेगी
और रुह तेरी क़ब्र में हसरत से जलेगी
वह खावेगा और तेरे तईं आग लगेगी
ता हश्र तेरी रुह को फिर कल न पड़ेगी

दिन-रात तेरी छाती को कुटवावेगी बाबा!

गर होश है तुझ में, तो बख़ीली का न कर काम
इस काम का आअख़िर को बुरा होता है अन्जाम
थूकेगा कोई कह के, कोई देवेगा दुश्नाम
ज़िन्हार न लेगा कोई उठ सुभ तेरा नाम

पैज़ारें तेरे नाम पे लगवावेगी बाबा!



शब्दार्थ

नज़आ=मरने के वक़्त; हश्र=क़यामत; दुश्नाम=ग़ाली; ज़िन्हार=हरगिज़,कभी; पैज़ारें=जूतियाँ