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मन है, यों मन-प्राण / रामगोपाल 'रुद्र'

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मन है, यों मन-प्राण जुड़ाऊँ!

छदन-छदन अनुराग उघारे,
कुसुम-कुसुम रुचि रूप सँवारे,
सुख-सहकार-सुरभि-शर साधो;
मैं दुख को कुहुकार बनाऊँ!

प्राणों को ही पाँख बना दो,
पाँख-पाँख को आँख बना दो;
मन के मधुबन के सूने में
तुम छाओ, मैं पर फैलाऊँ!

धुल जाए सारी अंजनता;
चकित चकोर, मुदित खंजनता;
फिर, कोई रट क्या, छटपट क्या?
मैं न रहूँ, मिल तुम हो जाऊँ!