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आरती बने / रामगोपाल 'रुद्र'

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आरती बने मेरे प्राण!

पाँच-पाँच लौ से यह
पंचमुखी दीप
दमक रहा; चमक रहे
मोती के सीप;
तृण-तृण तन क है घृत-घ्राण।

अचरज क्या, घर्षण से
जो लगे दवाग?
यहाँ तो नमी से ही
सुलग उठी आग!
तर ही थे उनके भी बाण।
बूँदें बटुरीं, उतरी
गिरि से जलभक्‍ति;
पतिता में भी प्रकटित
हुई महाशक्‍ति;
पानी से पिघले पाषाण।