जज़्बात खो गये हैं
अल्फ़ाज़ों की भीड़ में
जैसे गुम है इंसानियत
इंसानों की भीड़ में...
खुद ही से छुप रहा हूँ
गुनाहों की भीड़ में
क्या छुप चुका खुदा से
कोई दुनियाँ की भीड़ में...
मैं फँस गया ख़ुद ही के
सवालों की भीड़ में
दुश्मन से जैसे घिर गया
अपनों की भीड़ में...
इतने बना लिये रस्ते
शहरों की भीड़ में
सूझता नहीं कौन-सा सही
रस्तों की भीड़ में...
फ़ीकी सभी मिठाइयाँ
पकवानों की भीड़ में
गुम हो गया अपनत्व ज्यूँ
अपनों की भीड़ में...
कराह उठा वह मुझको
जो चोट लगी भीड़ में
अपना तो कोई निकला
गैरों की भीड़ में...
सिर्फ दर्शन करने आया है
मंदिर में भीड़ में
कोई सच्चा भक्त तो निकला
दर्शनार्थियों की भीड़ में...