सरस्वती-वंदना / शंकरलाल द्विवेदी
सरस्वती वंदना
जयतु, जय माँ शारदे!
वर दे, विनतजन तार दे। जयतु, जय माँ शारदे!
तेज-पुंज, प्रचण्ड रवि,
डूबा गहन तम-तोम में।
छा गए घन हो सघन,
नव-नील तारक व्योम में।
दृष्टि-पथ आलोक मण्डित हो, स्वहंस उतार दे।।
जयतु, जय माँ शारदे! वर दे, विनतजन तार दे।।। 1।।
हो गए संस्कार च्युत,
ये आर्य-जन इस दे्य में।
घूमते फिरते दशानन
साधुओं के वेश में।
भग्न है प्रतिमा, पुजारी को विशुद्ध विचार दे।।
जयतु, जय माँ शारदे! वर दे, विनतजन तार दे।।। 2।।
एक दिन थी गूँजती,
ध्वनि वेद-मंत्रों की जहाँ।
हाय! ये पन्ने फटे हैं-
राम-चरितों के वहाँ।
मुक्त स्वर, लहरे जननि! हृत्बीन को झंकार दे।।
जयतु, जय माँ शारदे! वर दे, विनतजन तार दे।।। 3।।
पंछियों को मुक्त विचरण-
की रही सुविधा नहीं।
भीत हैं, टूटें न उनके,
पंख टकरा कर कहीं।
क्षुद्र अन्तर्व्योम को, फिर से अमित विस्तार दे।।
जयतु, जय माँ शारदे! वर दे, विनतजन तार दे।।। 4।।
शब्द को दे अर्थ की-
संगति मधुर लय में पगी।
और स्वर में वेदना हो-
दीन-दुखियों की जगी।
आभार! ‘शंकर’ को सदा, भव-भावना का भार दे।।
जयतु, जय माँ शारदे! वर दे, विनतजन तार दे।।। 5।।