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प्रणय का आह्वान / शंकरलाल द्विवेदी

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प्रणय का आह्वान
(१)
मूक यौवन का निठुर उभार,
वेदना-सा, बन कर साकार।
हिला देता मानस के कोर,
प्राण छू जाते, दुःख के छोर।।
(२)
निविड़ साँसों का यह उत्ताप,
उठा लाता सपनों के पाप।
हृदय का स्पन्दन कर चीत्कार-
साँप-सा भरता है फूत्कार।।
(३)
गुलाबी स्मृति के ये तार-
वहन कर पाते क्या मृदुभार?
स्वप्न के लोक, प्रणय की आस,
किसी का अनचाहा विश्वास-।।
(४)
विदा कर देते नीरव मान,
बबूलों-सा बन कर अनजान।
सौंप विस्मृति के कर में प्यास-
प्रणय का करते हैं आह्वान।।
(५)
मात्र, दो-क्षण तक भर उच्छ्वास,
स्वर्ण-सी बाँहों का सुखहार-
गले में डाल, इन्दु पर हास,
नयन में ढुलका, उर का प्यार-।।
(६)
कि जैसे बालारुण के चरण-
नयन से यों मिल जाते हैं।
जलज के उर में भर आनंद,
मधुप का मन बहलाते हैं।।
-२१ मार्च, १९६२