सहज गीत गाना होता तो *
सहज गीत गाना होता तो, पीड़ा का यह ज्वार न होता।
लय की भाँवर स्वर से पड़तीं, गीत कभी बेज़ार न रोता।।
सुधियों की देहरी पर पहरा,
निठुर उदासी की गद्दी का।
जो भी कागद लिया हाथ में,
निकला वह केवल रद्दी का।
निठुर लेखनी के नयनों से-
टपकीं अश्रु रूप में मसि क्या?
बेदर्दिन तड़पाती देखी,
इतनी कभी लौह की असि क्या?
सागर आसानी से तिरता, तो फिर यह मँझधार न होता।
दुःखी न मरते सिसक-सिसक कर, तो शायद यह क्षार न होता।।
विवश भावना, दुलहिन बैठी,
मन के सूने से आँगन में।
कैसे मधुर कण्ठ से गाए,
श्यामा अनचाहे सावन में।
सुनीं न सुमधुर, बिना गीत के-
पायल की धुन, रुनझुन-रुनझुन।
लौट चले बेचारे दर्शक,
पथ पर नीरस, अनमन-अनमन।
आह अगर होती न कदाचित् यौवन का कुछ सार न होता।
होता अगर समर्थ आज मैं, कल को कभी उधार न होता।।
दुर्दिन में मन के कोने में,
माना, पीर गीत की जननी।
उठतीं अमित उमंग-मीन हैं,
पर अपनी कुछ ऐसी करनी।
एक पीर का अन्त न होता,
और पीर उठ-उठ आतीं हैं।
पहली लिखी पंक्तियाँ फिर-फिर,
साथ-साथ मिटती जाती हैं।
पीर लिए, सब कवि बन जाते, कवि का अर्थ प्रचार न होता।
सभी गीत बन कर रह जाते, सपनों का संसार न होता।।
मेरे इस शीतल अन्तस् में,
इतने तप्त भाव सोते हैं।
बाहर आते कण्ठ-जिह्वा पर,
बस अगणित छाले होते हैं।
पीड़ा के कारण भावों को-
अन्तस् में लौटा देता हूँ।
कभी अधिक पीड़ा के कारण,
आँसू दो ढुलका देता हूँ।
उर के भाव व्यक्त होते तो, इतना कभी उदार न होता।
अपने व्यवहारों में सचमुच, इतना कभी सुधार न होता।।
-
१८ मार्च, १९६२
- ‘नव-प्रभात’ में प्रकाशित