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दोहा - 5 / रत्नावली

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रतनावलि भवसिंधु मधी, तिय जीवन की नाव।
पिय केवट बिनु कौन जग, पेइ किनारे लाव॥

को जाने रतनावली, पिय बियोग दुष बात।
पिय बिछुरन दुष जानतीं, सीय दमैंती मात॥

तन धन जन बल रूप को, गरब करौ जनि कोय।
को जानै बिधि गति रतन, छन में कछु कछु होय॥

रतनावलि काँटो लग्यो, बैदनु दयो निकारि।
बचन लग्यो निकस्यौ न कहुँ, उन डारो हियकारि॥

छनहुँ न करि रतनावली, कुलटा तिय को संग।
तनक सुधाकर संग सों, पलटति रजनी रंग॥