भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दुनिया रैन-बसेरौ / शंकरलाल द्विवेदी
Kavita Kosh से
Rahul1735mini (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:02, 4 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शंकरलाल द्विवेदी |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दुनिया रैन-बसेरौ
जा दिन काल करैगौ फेरौ-
कोई बस न चलैगौ तेरौ।
रे प्रानी!-
मत कर गरब घनेरौ।।
निखरै कंचन जैसी काया,
चन्दन-गंधी शीतल छाया।
ऐसे मानसरोवर वारे-
हंसा उड़ि कहुँ अनत सिधारें,
रे पंछी!-
दुनिया रैन-बसेरौ।।
रे प्रानी!-
मत कर गरब घनेरौ।।