Last modified on 14 दिसम्बर 2020, at 18:24

भाषा का एक कवि / रूपम मिश्र

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:24, 14 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रूपम मिश्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक था कवि
अपनी भाषा की गाली से आहत था
फिर एकदिन सहा नहीं गया तो वो अपनी पीड़ा उगल बैठा

हालाँकि पीड़ा अपनी कवि ने व्यंजना में कही थी
पर हमने अभिधा में लपक लिया
फिर भाषा कायदे से अपने भदेसपन पर उतर आई

उस कर्कश शोर की भीड़ में भटकते हुए एहसास हुआ
कि ख़ामोशी कितनी ख़ूबसूरत होती है
तुम बहुत जल्दी से चुप हो गए कवि !

तुम्हारे हिस्से की बात अब कौन बोलेगा

क्या भाषा जब गाली में परिवर्तित होने लगे
तो चुप हो जाना बेहतर होता है ।