Last modified on 15 दिसम्बर 2020, at 13:17

कविता-7 / शैल कुमारी

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:17, 15 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैल कुमारी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दूर तक फैला अभेद्य अंधकार
बेजान शिशु की तरह जन्म लेता भयावह सन्नाटा
शब्दों की आकृतियाँ बनती हैं
बिगड़ती हैं
अर्थ के साथ सही रिश्ते खो गए हैं
मानो
ज़मीन से दूर, आसमान में, निराश
बादलों के छोटे-छोटे छौने बहक गए हैं
कहने को बहुत कुछ बाक़ी है
न कह पाने की मजबूरी
एक और शून्य रचती है
वेदना के क्षण
ये ही सच हैं
आओ हम इन्हें तराशते रहें
कोई भी धुन, थिरकन और हवा में कंपन
मन के तार नहीं छूती
कोई भी ताल नहीं बैठती
शायद, ज़िंदगी की हर धड़कन
अपना मक़सद भूल गई है
और अब अपनी ही गूँज से डरती
एक पनाह माँग रही है।