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कविता-10 / शैल कुमारी

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बार-बार लौटकर
जब मैं उस आँगन के बीच में बँधे
चौखटे आकाश की छाँह लेना चाहती हूँ
हर बार मुझे लगा है
आकाश पहले से छोटा हो गया है
दीवार पर उगने वाला सूरज
शायद रोज़-ब-रोज़ अधिक गर्म होता रहा है
आँगन के कोने में जगमगाने वाला
तुलसी का पौधा
बिल्कुल झुलस गया है
एक-एक पत्ती मुरझा कर टूट गई है
अमराइयों की ओर जाने वाला रास्ता अब भी है
पर घनी छाँव किसी ने छीन ली है
रोज़ सुबह-शाम
बैलों के गले की रुनझुन
चिड़ियों के चहचहाते मीठे सुर
हवा में उठते और गिरते सुनाई देते हैं
पर उनका आह्वान कोई हूक नहीं देता
मैं ढूँढ़ती हूँ
पुराने भावाकुल चेहरे
स्नेह दीपित आँखें
और बढ़े हुए हाथ
पर मेरे हाथ,
शून्य में लटक कर रह जाते हैं।