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करवा का व्रत / आरती 'लोकेश'

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पिछले वर्ष पचास से,
करवा व्रत तुम करती आईं।
इसी व्रत के प्रताप से ही,
लम्बी उम्र यह मैंने पाई।

इस करवाचौथ तुम सुनो प्रिय!
यह निर्जल व्रत तुम बंद करो।
सुनो बात जो दबी मेरे हिय,
सुधार इस व्रत में चंद करो।

दाम्पत्य के आरम्भ में,
तुम रही मेरी प्रेमिका।
रजत जयंति में बनी मल्लिका,
स्वर्ण जयंति पर परिचारिका।

तुमने तो यह व्रत माँग लिया,
रहूँ सुहागन, मरूँ सुहागन।
क्या कभी सोच यह देखा,
कैसे जीऊँगा मैं तुम बिन?

सांध्यदीप की लौ समान,
पल-पल घटता घृत सा मन,
व्याधियों की आँधियों से,
तिल-तिल रिसता साँसों का क्षण।

स्वार्थ कहो या कहो प्रेम,
अब से यह व्रत मैं करूँगा।
तुम्हारा साथ सदा पाने को,
अपना सौभाग्य मैं वरूँगा।