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पर्वत की ओर / नवीन कुमार सिंह

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जितना आगे जाएगी धारा होगी कमजोर
ऐ नदिया चल लौट चले वापस पर्वत की ओर

सुबह सूर्य-सी उदय हुई तू, शाम ढली पनघट पर
अब निज को कितना ढालेगी, तू माटी के घट पर,
साफ चुनर ये चमकीली सी, मैली हो जाएगी
शहरों से विष पाकर, विष की थैली हो जाएगी
इक दिन खारी हो जाएगी, जितना कर ले शोर
ऐ नदिया चल लौट चले वापस पर्वत की ओर

सदियों से चलती आई है तेरी यही कहानी
मूल तुम्हारे भीतर जो है, वह है केवल पानी
पत्थर से टकराई जब भी, दिशा नई पाई है
ऊपर उड़ता काला बादल, तेरी परछाई है
फिर भी तुझको बाँध रही है क्यूँ सागर की डोर
ऐ नदिया चल लौट चले वापस पर्वत की ओर

सबकुछ सहते रहने तक ही तेरी पूजा होगी
झर झर बहते रहने तक ही तेरी पूजा होगी
फिर मतलब के करतब को तुझसे साधा जाएगा
आगे जाकर बाँध बना तुझको बाधा जाएगा
पाप सभी अपने धोयेंगे, क्या साधु क्या चोर
ऐ नदिया चल लौट चले वापस पर्वत की ओर