मेरी क़ैद से मुक्ति
किसी को कष्ट न दे
इसलिए बुरा बनूँगा
सब स्वयं छोड़ देंगे मुझको
मैं लगभग बन्धनमुक्त
जिस दिन उस अन्तिम अपने ने छोड़ा
उस दिन ही मुक्ति के आठ दरवाज़े खुले
भीतर का गुबार निकला
मैं हो गया पहले से हलका
मैं माँगने लगा था उधार
कई बार
लौटाता ही नहीं था
पहले उन अमीरों ने छोड़ा
जो पैसे, मेरे लिए छोड़ नहीं पाए
फिर मैं किताबें माँगने लगा
लौटाता हीं नहीं था
उन पढ़े-लिखे लोगों ने दरवाज़े बन्द किए
जो किताबें मेरे लिए भूल नहीं पाए
फिर मैं मुफ़्त में ज्ञान माँगने लगा
यहाँ उन लोगों ने रास्ते अलग किए
जो मुझे मुफ़्त में ज्ञान बाँट नहीं पाए
मै समय माँगने लगा
मसरूफ़ लोगों की एक बड़ी जमात
मुझे अनदेखा कर भाग गई
मैंने प्रेम के बदले वस्तु माँगी
वे दे देते, पर उनके पास नहीं थी
सबसे विवश टूटन उस जुड़ाव ने झेला
हम हर बार रोए
हर बार और हल्के होते गए
जकड़े कितने बन्धनों से मुक्त
बस, एक देह की जेल
और साँस के बन्धन से मुक्त तब हुए जब उम्र ने चाहा ।
उम्र से मेरी बातचीत नहीं होती थी
वह मुझसे नहीं बोलती थी
बोलती तो उससे भी रूठ जाता
या उसे भी रुला देता
उसने जकड़ रखा था कसके,
चलती रही साथ-साथ,
“न” से तालुक्कात थे उससे
इसलिए नहीं रूठ सका उससे
उम्र रहते नहीं टूट सका उससे
काश ! उम्र का भी कोई फ़ोन नम्बर होता
यह देह और ये आडम्बर नहीं होता !