भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेड़ों के गलियारे / यश मालवीय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:03, 2 जनवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यश मालवीय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNavgee...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाँहें फैलाते हैं
पेड़ों के गलियारे
छन-छन कर झरते हैं
अनदेखे उजियारे

राहों में चरर-मरर
करती हैं पत्तियाँ
घाटी में जलती हैं
हरी-हरी बत्तियाँ

बैठा रहता पर्वत
जैसे पलथी मारे

बर्फ़ की बनी सीढ़ी
धूप में पिघलती है
ऊँघती ढलानों से
नदी बह निकलती है

मीठे से लगते हैं
झरने खारे-खारे।