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एकल परिवार / सत्यनारायण स्नेही
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हमारे पुश्तैनी घर में
रहता था
संयुक्त परिवार
हंसते-खेलते थे
सारे भाई-बहन
हाथों-हाथ
निपटते थे सारे काम।
रहता था आवाजाही
मिलते थे समाचार
सजती थी चौपाल
ठहाकों के साथ।
अपने एकल परिवार में
हम है सिर्फ़ चार
निकलते हैं बाहर
बन्द करके
घर के द्वार।
खत्म हो गया लोगों का
आना-जाना
बदल गये कारोबार
बदले जीवन के सलीकें
मानवीय सरोकार।
न सुख–दुख में
न तीज-त्योहार में
आज
इंटरनेट पर एक दूसरे से
मिलते हैं
परिवार के लोग
एलबम में दिखते हैं
एक साथ।
कोई आता नहीं
इस घर में
कदाचित
यही मान कर
पूछने वाला नहीं है
यहां पर कोई
जिससे साझा कर सके
अपने विचार
बिता सके
कुछ पल एक साथ।