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बदलाव / सत्यनारायण स्नेही

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जितनी बार आया मैं
अपने गांव
मुझे मिला हर बार
कहीं घर में
कहीं समारोह में
कहीं कामकाज में।
बचपन में देखता था
उसे टी०वी० में
अब बात करता है सबसे
मोबाईल पर ।
वह कभी आया गाड़ियों में
सामान के साथ
कभी तंग कपड़ों की
छोटी जेबों में
वह जब आया
राशन की दुकान से
बंजर करता गया खेत
निगलता गया गांव में
उगने वाले अनाज़
उखाड़ दिये उसने घरों से
डाफ़ी,खांदे,मगीरी
ओबरे और मवेशी
कबाड़ हो गये
टोकणा,लोटड़ी,भड्डू,तांबीया
कांसे की थाली
गायब कर दिया चूल्हा
उसमें पकने वाली
कड़ोटी,कदोली,बथोली
लड रहा है अपनी आखिरी जंग
पटांडे और सिड्डू के साथ
बाज़ार में नीलाम कर दिये
तीज-त्यौहार ,रीत-रस्म
नुमाईश लगती है अब
रिश्तों-नातों की ।
मुस्तैद है वह
स्कूल के बस्ते में
खेल रहा है बच्चों के साथ
नई भाषा का खेल
बांट रहा शब्दों के लालीपाप
दिखा रहा है स्वप्न-संसार
वह पहुंच गया है
बुजुर्गों के पास
अनुभव और किस्सों की
पोटली बांधने
जो अब करते हैं सिर्फ़
फोन का इन्तज़ार
मेरे गांव का हर शख्स
दौड रहा है उसके पीछे
पाना चाहता है उसे
समग्र रूप में
मिटा रहा है लगातार
अपनी अस्मिता को