Last modified on 9 जनवरी 2021, at 23:37

ऐसे ही फैलता है / सदानंद सुमन

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:37, 9 जनवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सदानंद सुमन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम्हारी दिनचर्या में
तुम्हारे अनचाहे ही एक दिन अचनाक
हो जातीं शामिल वे ही चीजें
जिन्हें नहीं चाहा फटकनें देना कभी अपने पास!

किन गलियों-पगडंडियों-रास्तों से हो कर
पहुँचती वे तुम्हारे करीब
हो जाते देख कर यह हैरान

तुम जान रहे होते मोहकता के पीछे छुपे
उनके खूंखार इरादों की असलियत

तुम ढूंढते जब तक उनसे पीछा छुड़ाने के उपाय
तुम्हारे अपनों पर करके सम्मोहन का वार
हो चुके होते उनके कंधो पर सवार

उनके रग-रेशों से बनाते रास्ते
हो जाते दाखिल तुम्हारे घर के अंदर!

घिरे हो जिस तंत्र से तुम
उसमें रखना ही पड़ता है
अपनों की इच्छाओं का ख्याल

तुम हो जाते ध्वस्त
ऐसे ही फैलता है उनका सम्राज्य!