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अपराध-बोध / अनिता मंडा

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बर्तन ले लो के ऊँचे स्वर में
कोई चमत्कार था
खींच लाता था चारदीवारी में बंद औरतों को
आँगन से बाहर
मोल-भाव करती टुकुर टुकुर देखती थी
घुम्मकड़ लुहारिन को
जैसे किसी दूसरे लोक से आई हो वह

उसकी सांवली गठी हुई देह
गर्वीली धनुष जैसी बरौनियाँ
चमकीली चौकनीं आँखें, तनी हुई ग्रीवा
बीड़ी से जले हुए सांवले से थोड़े अधिक सांवले होंठ, उठे हुए कंधे
उसको देखने की लालसा
मक्खियों के गुड़ से लिपटने जैसी थी

दूर से पुकारती उसकी बुलंद आवाज़
मचाती है खलबली सी
चलती है वह उड़ती हुई सी
आँखें नहीं झुकाती ताड़ने वाली आँखों से
चाकू की धार से तेज धार है उसकी निगाह में
खिलखिलाती उसकी हँसी पर
अटक जाती हैं
चारदीवारी से झांकती औरतें
अनायास ठहर जाती हैं
दर्पण के सामने
मन ही मन करती हैं क्षमायाचना
दर्पण वाली लड़की से
उसके सपनों की पाँखें कुतर देने के अपराध-बोध से
झुक जाती है दृष्टि अनायास
झुक जाते हैं कंधे पहले से कुछ अधिक