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बसंत / अनिता मंडा
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ज़र्द पत्तों के लिबास उतारे
दरख्तों ने अपने बदन से
मौसम ने करवट बदली
शाखों पर फूटी कोंपलें नई
सरसों के खेतों में
बिछे हैं फुलकारी वाले गलीचे
तितलियों के परों पर सजे
उड़ रहे हैं इंद्रधनुष
तुम आओ तो
हिज़्र का रंग छूटे
अभी कहाँ है बसंत