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दुःख / शचीन्द्र आर्य

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पीछे से दिखाई दी सफ़ेद बालों वाली खोपड़ी।
झुकी गर्दन। चीकट से कॉलर।
पसीना ठंड में उस तरह लकीर बनकर नहीं बहता।
किसी नमकीन झील की तरह जम जाता है गर्दन पर।

उन खिचड़ी हो गए बालों की तरह खिचड़ी रही होगी उसकी ज़िंदगी।
बेतरतीब। बेस्वाद। पसीने का नमक भी नहीं होगा उसमें जीभ के लिए।

कंधों पर घास के सूखे तिनके थे,
एक बोट थी, एक फुनगा था।
दुःख वहीं कहीं छिपा बैठा था। दूर से रुई-सा हल्का दिखने वाला।

पास से वह दुःख ही था,
तिल के दाने जितना। उसी में सब पीड़ा थी।
कभी दुख में सुख के इंतज़ार का दुख था।
दुःख ही उसकी धमनियों में ख़ून बनकर खोई हुई चींटी की तरह रेंगता होगा।

सामने से देखने पर वह आईना-सा लगता।
जो भी उसकी तरफ़ देखता, मुतमईन हो जाता।
आहिस्ते से बुदबुदाता
मैं नहीं हूँ।

पर उन्हें पता था,
वही फुनगी,
वही बोट,
वही खिचड़ी बाल उनकी तस्वीर में भी हूबहू वैसे ही थे
गर्दन पर पसीने की लकीर की तरह।