भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धागे / शचीन्द्र आर्य

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:40, 11 जनवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शचीन्द्र आर्य |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गर्मी की दुपहरों में जब कभी
एक चींटा दूसरे चींटे को खींच कर ले जाते हुए दिखता है,
तब लगता है, उनमें बची रह गयी हैं कुछ नमी।
कुछ स्मृतियाँ। कुछ स्वप्न।

उनमें बची रह गयी हैं, एक साथ चलने
और उसमें खो जाने पर भी वापस लौट आने की संभावना।

उनमें बचे रहते हैं धागे। कुछ कमजोर और कुछ मज़बूत।
वही रचते हैं, पीछे वापस लौटा ले जाने वाली लीक।

सोचता हूँ,
मेरे पास भी बचे रहते कुछ ऐसे धागे, ऐसे रास्ते
जहाँ भीतर लौटते चींटे की तरह मैं भी लौट पता।