भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जग में भटक गया / कुमुद बंसल
Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:10, 18 जनवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमुद बंसल }} {{KKCatKavita}} <poem> 1 सुकून न बिक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
1
सुकून न बिकता किसी हाट,
न बिकता किसी दुकान ।
छिपा बैठा गहरे मन,
वहीं इसकी धरा औ' आसमान।।
2
कभी चाह में अटक गया,
कभी शीशे-सा चटक गया।
परम को पाने चला था,
पर जग में भटक गया।।
3
मुझे बनाया, मुझमें रहे,
रहे और मिट गए।
कर्म-रूप में हूँ खड़ा,
कितने युग सिमट गए।।
4
पर्वत से निकला दरिया हूँ,
बहते रहना मेरा काम।
सागर में समा जाता मैं,
मिट जाता मेरा नाम।।