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चम्पा ने / शलभ श्रीराम सिंह
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चम्पा ने
जब पलाश को देखा
थोड़ी-सी और खिल गई !
एक की हथेली ने पोंछ लिया
दूजे के माथ का पसीना
सहसा आसान हो गया जीना
बिन खोजे राह मिल गई !
चम्पा ने
जब पलाश को देखा
थोड़ी-सी और खिल गई !
ईहा की बँधी हुई मुट्ठियाँ
जीवन के उठे हुए पाँव
देख — फ़र्क अपना खो बैठे हैं
जाड़ा-बरसात — धूप-छाँव !
कुण्ठा की नींव हिल गई !
चम्पा ने
जब पलाश को देखा
थोड़ी-सी और खिल गई !